रविवार, 12 अगस्त 2012

अब, प्रकाशित करें अपनी प्रेम कहानी

क्या आप कोई कहानी लिखने की सोच रहे हैं, और वह भी प्रेम कहानी? बिल्कुल लिखिये क्योंकि इसे आप आसानी से प्रकाशित करा सकते हैं. अपनी प्रेम कहानी प्रकाशित कराने के लिए आपकी उम्र 18 साल या इससे अधिक होनी चाहिए. आपकी प्रेम कहानी गतिशील, प्रेरक, दिल को छू लेने वाली होनी चाहिए और वह भी कम से कम 3,000 शब्दों में.
पेंगुइन इंडिया एक स्पर्धा लव स्टोरीज दैट टच्ड माई हार्टआयोजित कर रहा है. पुरस्कार के लिए प्रविष्टियों का चयन कैन लव हैप्पन ट्वाइजके बेस्टसेलिंग लेखक रविन्दर सिह और पेंगुइन के संपादक करेंगे. पुरस्कृत कहानियां संकलन के तौर पर दिसंबर तक प्रकाशित की जाएंगी. पेंगुइन बुक्स इंडिया की वरिष्ठ संपादक वैशाली माथुर ने प्रेस ट्रस्ट से कहा ‘‘हम इस स्पर्धा के माध्यम से नए लेखकों की खोज की संभावना से रोमांचित हैं. यह स्पर्धा नए लेखकों के लिए अपनी रचनाएं प्रकाशित कराने का अच्छा मौका है.’’ (भाषा)

शनिवार, 11 अगस्त 2012

यशप्रार्थियों के लिए अनुकरणीय हैं राधे मां

धन के साथ नाम भी हो, ऐसी ख्वाहिश अमूमन हर शख्स पालता है. ‘नाम’ और ‘नामा’ एकसाथ बहुसंख्य लोगों की किस्मत में नहीं होते. कुछ ताउम्र धन कमाने में ही संलग्न रहते हैं, नाम कमाने की उनमें इच्छा ही नहीं होती. कुछ भद्रजन केवल नाम ही कमाना चाहते हैं. खुद नाम न पैदा कर सके तो पैदा किए हुए से उम्मीद पालते हैं- मेरा नाम करेगा रोशन जग में मेरा राजदुलारा. शोहरत जब बुलंदियों को छूती है, तो आदमी को लगता है कि उसका जीवन सार्थक हुआ. गली की प्रधानी से लेकर देश की प्रधानी के पीछे यही दीवानगी है. कवि-लेखक नाम चमकाने के चक्कर में मसि-कागद के सिलबट्टे पर अक्ल घिसते हैं. हालांकि टन भर अक्ल खर्च करने के बाद यह नाचीज प्राणी छटांक भर इज्जत ही अर्जित कर पाता है. वह भी जरूरी नहीं कि जीते जी मिले. कइयों का नंबर मरणोपरांत आता है. आजीवन कहीं न छप पाने के क्षोभ में कई कवि/लेखक बाद के दिनों में प्रकाशक बन गये. इन्होंने नाम और नामा का महत्व समझा और छपने की खुजली से त्रस्त कई नामचीनों को दाम लेकर नाम दिया.

हाल के वर्षो में कुछ चेहरों ने जिस तरह से नाम ‘कमाया’ है, वह अनुकरणीय हो या न हो, ‘स्मरणीय’ अवश्य है. इनमें मॉडल पूनम पांडेय, पोर्न स्टार सनी लियोनी, निर्मल बाबा और अध्यात्म जगत की नयी सनसनी राधे मां का नाम उल्लेखनीय है. वास्तविकता तो यह है कि एक खास तबका इन नये अवतारों का सर्वाधिक मुखर प्रशंसक और समर्थक है. वैसे भी इस उम्रवालों को ‘मन-मन भावे मुड़िया हिलावे’ वाली डिप्लोमेसी आती ही नहीं.

दरअसल, राधे मां ने ख्याति का वो शार्टकट अपनाया है, जहां कामयाबी के गंतव्य तक पहुंचना असंदिग्ध और न्यूनतम जोखिम से भरा होता है. वह इस रास्ते की न तो निर्माता हैं, न कोलंबस सरीखी अन्वेषक ही. यह शार्टकट तो सदियों से वहीं का वहीं है बस इसे अब एक नाम मिल गया है. इतिहास गवाह है कि हर युग में समाज दुस्साहसियों की तीव्र आलोचना और विरोध के साथ सराहना और अनुसरण भी करता आया है. समय चाहे जितना बदल चुका हो, राधे मां को चाहने और दुत्कारने वाले दोनों हैं. राधे मां के ‘आइ लव यू फ्रॉम द बॉटम ऑफ माइ हार्ट’ जैसे जुमलों पर अमेरिका से लेकर अमृतसर तक और मुंबई से लेकर मुरी तक के ‘भक्त’ जान छिड़क रहे हैं.

राधे मां महामंडलेश्वर रहें या ना रहें, इससे उनके चहेतों को कोई खास फर्क पड़ने वाला नहीं है. यकीनन उनके चाहने वालों का बहुमत उनके साथ है. पूनम पांडेय और राधे मां सरीखे नाम कमानेवाले यशस्वियों को आप सराहें या कोसें, पर भुला नहीं पायेंगे. वह अनेक संघर्षरत यशप्रार्थियों के लिए प्रेरणादायक हैं और अनुकरणीय भी!

गुरुवार, 2 अगस्त 2012

खाली ‘तरकश’ से मेडल नहीं मिला करते

ओलिंपिक के लिए जाने से पहले से भारतीय तीरंदाजों को लेकर बड़े-बड़े दावे किए गए थे. पर वे उन्हें हकीकत में बदलने में पूरी तरह नाकाम रहे. इससे ज्यादा शर्मनाक क्या हो सकता है कि जिन स्टार खिलाड़ियों से गोल्ड की उम्मीद की जा रही थी, वे क्वालिफाई करने में भी नाकाम रहे. हमारे खिलाड़ियों के लिए जब खेल से ज्यादा अपने हित महत्वपूर्ण होने लगें, जिम्मेदारी व अनुशासन का कोई दायरा उन्हें बांध न सके, तो फिर भला जीत की उम्मीद कैसे की जा सकती है? जीत मिल गई, तो अपनी ताकत की वजह से कम, सामने वाले की कमजोरी से अधिक.

अतिआत्मविश्वास ने डूबोया

भारतीय तीरंदाजी टीम ने लंदन ओलिंपिक में करोड़ों खेल प्रेमियों को जिस तरह से निराशा किया है वह निंदनीय है. क्वालिफाइंग राउंड से ही खासकर महिला तीरंदाजों में न तो एकाग्रता नजर आई और न ही वह कूबत जिसकी उम्मीद भारतवासी कर रहे थे. हमारे सभी
धुरंधरतीरंदाज अपने प्रतिद्वंदियों के सामने ढेर होते नजर आए. सबसे ज्यादा निराश किया महिला तीरंदाजों ने. उसमें भी लोग दीपिका से कुछ ज्यादा ही दुखी हैं, क्योंकि वह तो दुनिया की नंबर एक तीरंदाज हैं. यह खिताब ओलिंपिक में जाने से कुछ दिन पूर्व ही उन्हें हासिल हुआ था. अफसोस कि दीपिका ने उसकी गरिमा को बरकरार नहीं रखा. आत्मविश्वास तो ठीक है, लेकिन अतिआत्मविश्वास ने दीपिका को डूबो दिया. ओलिंपिक के लिए रवाना होने से पूर्व दीपिका ने कहा था ओलिंपिक कोई भूत नहीं है, जिससे डर लगेगा.अब शायद उन्हें यह अहसास भली भांति हो गया होगा कि ओलिंपिक क्या बला है. जीत का दंभ भरने और जीतने में फर्क भी उन्हें मालूम हो गया होगा. उन्हें यह भी मालूम हो गया होगा कि ओलिंपिक का मेडल पाने के लिए लक्ष्य भेदना पड़ता है सही निशाना लगाना पड़ता है. इसके लिए तीरंदाज के तरकश में कैसा तीरहोना चाहिए. भारतीय तीरंदाजों का तरकशतो खाली था, उन्हें भला मेडल कैसे मिलता? यह सवाल वे जब खुद से करेंगे तो इसका जवाब उन्हें खुद-ब-खुद मिल जाएगा कि क्या उनके तरकश में संकल्प का तीर था, मनोबल का तीर था, एकाग्रता का तीर था, जोश का तीर था. जवाब है नहीं.

ले डूबा अहंकार

काश, भारतीय खिलाड़ी थोड़ा और ज्यादा प्रेशर ङोलने का माद्दा रखते, तो आज ओलिंपिक मेडल लिस्ट में भारत के नाम के आगे लिखे मेडल की संख्या कुछ ज्यादा होती. काश, हमारे तीरंदाज अपनी अभ्यास को और धार देते और एकाग्रता को बनाये रखते तो आज कुछ और बात होती.