गुरुवार, 28 जून 2012

महंगाई की तपिश और मॉनसून के नखरे

महंगाई की तपिश में मानसून नखरे दिखा रहा है. नल में पानी नहीं है. बीज और उर्वरकों में बेतहासा मूल्यवृद्धि के बाद उदासीन हो चुके किसानों के खाली खेतों में घोटाले की घास उग आयी है. बाजार में बिक रहा ‘आम’ लोगों की पहुंच से दूर होता जा रहा है. बेइमानी की पानी से जला हुआ आदमी लस्सी भी फुंक-फुंक कर पी रहा है. यह बड़ा ही भयावह दौर है.
100 दिन में महंगाई को ‘मटियामेट’ कर द...ेने का दावा करने वाली सरकार आज कहीं मुंह दिखाने के लायक नहीं है. एक आंकड़ा देखिये- तब डीएपी 520 रुपये प्रति बोरी था आज 1000 रुपये है, पेट्रोल 49 रुपये प्रति लीटर से 79 रुपये और दाल 58 से 100 रुपये प्रति किलो बिक रहा है. अनाज के दाम भी अगर इसी रफ्तार में बढते रहे तो अभी हम बीन कर खाते हैं, आगे गिनकर खाना पड़ेगा. समझ में नहीं आ रहा इसके लिए सरकार दोषी है या पब्लिक? हर आदमी ‘आम’ हो गया है और परेशानियों से ‘पक’ गया है.
अभी कल की ही बात है. सब्जी मार्केट से लौटने के बाद श्रीमती जी का चेहरा लाल हुआ पड़ा था. सहमते हुए मैंने पूछा ‘क्या हुआ ‘भाग्यवान’? चेहरे पर गरमी का असर है या गरमी ही है.’ बोलीं- आप तो चुप ही रहिये. महंगाई का किस्सा अखबार में छाप-छाप के सबका दिमाग खराब कर रखा है. सब्जियों के दाम में आग लगी है, रिक्शे वाला 10 के बजाय 20 रुपये मांग रहा है. कहता है- मैडम, आपको पता नहीं क्या पेट्रोल का दाम बढ गया है. अब भला पेट्रोल के दाम बढने से रिक्शे का भाड़ा बढाने का क्या औचित्य?’ मन तो हुआ कि रिक्शे वाले के बचाव में दो शब्द कहूं पर श्रीमती जी के ‘शब्दबाण’ की डर से मेरी बात मेरे हलक में ही सूख गयी. मैंने एक गिलास ठंडा पानी उनकी खिदमत में पेश किया और बोला- छोड़ो जाने दो. पानी गला से जैसे-जैसे नीचे उतरा उनका गुस्सा कुछ कम हुआ. बोलीं ‘एक तो इतनी गरमी और उपर से इतनी महंगाई. आखिर कोई कैसे गुजर-बसर करे. सचमूच जिंदगी टफ हो गई है.’ मुझसे रहा नहीं गया ‘देखो, इतना भी निराश होने की जरू रत नहीं. यह महंगाई तो बस इस मौसम में चल रही तपिश की तरह है जो मॉनसून के आते ही छू मंतर हो जाएगी.’ जवाब था ‘पर मॉनसून भी तो नखरे दिखा रहा. लगता है सरकारी नीतियों से रू ठ गया है. कभी केरल तो कभी बंगाल में झलक दिखा कर कहीं छुप जा रहा. हमारी सरकार तो कुछ करने से रही. विपक्ष भी बावला हो गया है. यह कैसी व्यवस्था है जो दिन-रात मेहनत करने वाले मजदूर को या अन्न उपजाने वाले किसान को प्रतिदिन के 200 रुपए नहीं देती है, पर केवल क्रिकेट खेलने की काबिलियत के लिए किसी को 40 लाख रु पए देने को तैयार है?’

बुधवार, 13 जून 2012

फिक्रमंद मां-बाप यानि मुद्दई सुस्त, गवाह चुस्त


मेरे पड़ोसी बब्बन पांडेय का सबसे छोटका बेटा जब से मैट्रिक पास हुआ है तब से उसका पूरा परिवार कुछ परेशान रह रहा है. मिसेज पांडेय तो बेटे के पास होने की मनौती उतारने मंदिर और दरगाहों का चक्कर लगा रही हैं तो तथाकथित जानकारों के दर की खाक छान रहे हैं. दरअसल, वे इस बात को लेकर कुछ दिग्भ्रमित लग रहे हैं कि मैट्रिक के बाद बेटे का दाखिला कहां और किस सब्जेक्ट में करायें. इस माथापच्ची में उनके सिर का आधा बाल तो उड़ ही गया है समङिाये. थके-हारे पांडेयजी जब घर लौटते हैं तो उनकी मलिकाइन टेंशन भगाने वाला ठंडा-ठंडा, कूल-कूल तेल की मालिश खोपड़ी पर करती हैं. पर छोटका को इस सबसे कोई लेना-देना नहीं. वह तो परीक्षा देने के बाद से ही नानी के घर मौज काट रहा है. अभी कल की ही बात है, पांडेय जी कहने लगे ‘जाने कवन नछतर में पैदा हुआ था ससुरा. उसके हर काम में कुछ ना कुछ लमेट जरू रे लगता है.’

इतना सुनते ही मलिकाइन मछियाइल मछली की तरह बिफर पड़ीं ‘अपना कोख से जनमल लक्ष्का के बारे में कोई भला ऐसा कहता है.’ पांडेय जी को भी ताव आ गया ‘आपको कुछ बुझाता-उझाता तो है नहीं. हमको परवचन सुनाने से क्या फायदा, कभी लक्ष्कवा को भी कुछ काहे नहीं समझाती हो. दिनभर ससुर के नाती बहेंगवा के जइसन इधर-उधर छिछिआइल फिरता है. उसको अपने भविष्य का कुछ चिंता फिकिर भी है? ठीक से पढ लिख लेगा तो उसी को न फायदा होगा? तुम्हारे जंतर-मंतर कराने और उसके गले में गंडा-ताबीज की घंटी बांध देने से उसका कवनो भला नहीं होने वाला. भला तो तब होगा जब वह मन लगा के पढाई-लिखाई करेगा. अपने देश के प्रथम राष्ट्रपति रजिंदर बाबू (राजेंद्र प्रसाद) की योग्यता और बुद्धिमता किसी गंडा-ताबीज और टोना-टोटका की देन नहीं थी. वह उन्होंने अपने दम पर पाया था. तुम्हरा नइहर (मायका) भी तो रजिंदर बाबू के गांव के पासे न है. तुम्हरी खोपड़िया में यह सब बात काहे नहीं समाता. दूनो माई-बेटा एके जइसन हो.’

मलिकाइन भी कहां कम थीं. नइहर की बात सुनते ही बमक गईं ‘हमर बाबूजी पेशकार थे,भाई कलक्ट्रेट में बाबू है. आपके जइसा माहटरी में सिर नहीं खपाता.’ अब बारी पांडेय जी की थी ‘ कहे देते हैं, इहे हाल रहा तो बेटवा चपरासियो नहीं बन पावेगा.’

पति-पत्नी में यह सब चल ही रहा था कि छोटका लाल सर्ट और डेनिम जींस पहने अवतरित हुआ. देखा मां-बाबूजी दोनों का चेहरा तमतमाया हुआ है. उसे समझते देर नहीं लगी कि मुद्दा मैं ही हूं. उसने भी अपने तरकश का तीर चला दिया ‘बाबूजी, मैं कल मामू के बेटे के साथ पटना जा रहा हूं. कॉमर्स कॉलेज से एडमिशन फॉर्म लाने.’ पांडेय जी स्तब्ध थे. वे खुद को ही कोसने लगे ‘मैं तो बेवजह ही परेशान हो रहा था.’

सोमवार, 4 जून 2012

रिश्ते तोड़ रहा फेसबुक?


फेसबुक जैसी तमाम सोशल नेटवर्किंग साइट्स ने आज की दुनिया में क्रांति ला दी है। जीवन के हर स्तर पर इन नेटवर्किंग साइट्स का अहम रोल है। फिर बात चाहे दो दिलों को मिलाने की हो या फिर दुनियाभर में चल रहे आंदोलनों और क्रांतियों की। मगर अब जबकि इंटरनेट पर्सनलाइज्ड हो चुका है यानि आपके साथ हमेशा बने रहने वाले फोन तक पहुंच गया है। ऐसे में इनके साइड इफैक्ट्स भी सामने आने लगे हैं। एक सर्वे के मुताबिक दुनिया भर में एक तिहाई रिश्ते सोशल नेटवर्किंग साइट्स की वजह से टूट रहे हैं।

सर्वे में एक पत्नी की शिकायत थी कि उनके पति जब भी ऑफिस से आते थे तो फेसबुक पर लग जाते थे। उनकी चैटींग से वो परेशान थी, जिस वजह से उनके बीच झगड़े होते थे। उन महिलाओं की मानें तो फेसबुक को बंद कर देना चाहिए। फेसबुक से आने वाली जेनरेशन को बहुत प्रॉब्लम होने वाली है।

जबकि पति के मुताबिक मेरे मोबाइल में फेसबुक था जिसपर मैं चैट करता था। मैं अपनी एक महिला दोस्त से चैट कर रहा था। जो मेरी बीवी ने देखा। जिस पर काफी बवाल हुआ। एक महीने तक हमारी बातचीत बंद रही थी। मैंने उस महिला दोस्त को घर बुलाया और उसके बाद ही मामला शांत हुआ।

मुंबई में भी एक रिश्ता टूटने के कगार पर पहुंच गया था। दिन भर ऑफिस में काम करने के बाद शाम को पति घर आता था तो वो बीवी से बातचीत के बजाय अपने फोन में मौजूद फेसबुक के जरिए अपने दोस्तों से चैटिंग करने लगता। जाहिर है बीवी को पति का बर्ताव खटका। लिहाजा, उसने पति का फोन खंगाला तो पाया कि एक महिला से चैट की जा रही थी। लड़की से बातचीत पर पत्नी भड़क गई। मामला फैमिली कोर्ट तक पहुंच गया। फैमिली कोर्ट अगर मामला ना संभालता तो आज इनकी शादी-शुदा जिंदगी तबाह हो चुकी होती।

रिश्ते की डोर बड़ी नाजुक होती है और इसमें गलतफहमी की गुंजाइश बहुत कम है, क्योंकि सोशल नेटवर्किंग साइट गलतफहमी का एक बड़ा जरिया बनता जा रहा है। फेसबुक जैसी सोशल नेटवर्कींग साइट्स की वजह से दुनिया तो मुठ्ठी मे आ गई लेकिन रिश्तों मे दरार पड़ने लगी। इन साइट्स की वजह से नौबत ये आई है की पराए करीबी होने लगे हैं और करीबी पराए होने लगे हैं।

क्या आपकी राय में यह बात सही है की फेसबुक रिश्ते तोड़ रहा है?