मंगलवार, 31 मार्च 2009

मत जाना भूल, बन जाओगे अप्रैल फूल


आज पहली अप्रैल है, तो सतर्क रहिए, कहीं कोई आपको मूर्ख न बना दे। दोस्‍त-परिचित आपकी कमजोरियों से वाकिफ होते हैं, इसलिए छठी इंद्री को जगाकर रख्रिए। हर खबर सुनने के बाद सोचिए-विचारिए, उसके बाद ही खबर पर अपनी प्रतिक्रिया जाहिर करें। इस बार युवाओं में खासा क्रेज है और मोबाइल इसमें भूमिका निभाएगा।

तनाव भरी जिंदगी में कुछ पल चा‍हिए हंसने-हंसाने के लिए और इसके लिए चाहिए एक अदद बहाना। अप्रैल फूल भी ऐसा ही बहाना है। इसे मनाने के लिए किसी ने फनी मैसेज खोज निकाला है तो किसी ने कोई बहाना।


दोस्‍तों एक बात अवश्‍य ध्‍यान में रखें। मजाक करें तो एक हद में। इसका भी ख्‍याल रखें कि जिससे मजाक किया जा रहा है, वह इसे किस तरह लेगा। कहीं ऐसा न हो आपका मजाक हादसे में बदल जाए और अप्रैल फूल से माहौल अप्रैल शॉक में बदल जाए। वेसे आपको बता दें कि ऐसा माना जाता है कि 1582 में फ्रांस से अप्रैल फूल मनाने की शुरुआत हुई। इसके बाद यह पहले यूरोप और फ‍िर दुनिया भर में मनाया जाने लगा। अप्रैल फूल मनाने के बारे में कोई सटीक तथ्‍य मौजूद नहीं है, लेकिन दुनिया भर के अखबार और टीवी चैनलों ने पहली अप्रैल को कोई न कोई ऐसी खबर प्रकाशित या प्रसारित कर अपने पाठको व दर्शकों को मूर्ख बनाया है, जिससे रोमांच और हंसी-खुशी का माहौल कायम हुआ है।


ऐसे भी बने थे लोग अप्रैल फूल


मोजा रगडिए और टीवी कलर - 1962 में स्‍वीडन में एक ही टीवी चैनल था। वह भी ब्‍लैक एंड व्‍हाइट कार्यक्रम प्रसारित करता था। पहली अप्रैल को एनाउंसर ने कहा कि नई टेक्‍नोलाजी का कमाल देख्रिए, अपने नाइलोन के मोजे को स्‍क्रीन पर रगडिए और आपका टीवी कलर हो जाएगा। हजारों लोगों ने उसकी बात पर विश्‍वास कर लिया, लेकिन बाद में बताया गया कि आज फर्स्‍ट अप्रैल है।


उड रही है पेंगुइन - वर्ष 2008 में पहली अप्रैल को बीबीसी ने समाचार दिया कि उसकी कैमरा टीम ने अपनी नेचुरल हिस्‍ट्री सीरिज मिराकिल आफ इवाल्‍यूशन के लिए हवा में उडती पेंगुइन को कैमरे में कैद किया है। इसकी बाकायदा वीडियो भी दिखाई गई। यह सबसे ज्‍यादा हिट पाने वाली वीडियो साबित हुई। बताया गया कि ये पेंगुइन हजारों मील दूर उडकर दक्षिण अमेरिका के वर्षा वाले जंगलों में जा रही है, जहां ये सर्दी के मौसम तक रहेंगी। बाद में एक वीडियो जारी कर स्‍पष्‍ट किया गया कि स्‍पेशल इफेक्‍ट के जरिए पेंगुइन को उडाया गया था।
उम्‍मीद है अब तक आप सारी बात समझ गए होंगे। इसलिए हो जाइये सावधान, क्‍योंकि आज है अप्रैल फूल दिवस।

शनिवार, 28 मार्च 2009

ताकि पैदा हो सकें अच्‍छे पत्रकार

भारतीय प्रेस परिषद के अध्‍यक्ष न्‍यायमूर्ति बीएनरे ने कहा है कि पत्रकारिता शिक्षण संस्‍थानों के नियमन के लिए नियंत्रक संस्‍थान बनाया जाना चाहिए। उन्‍होंने इस बात पर जोर दिया कि अगर पत्रकारिता को चिकित्‍सा प्रबंधन, इंजीनियरिंग और अन्‍य व्‍यवसायिक विषयों के स्‍तर तक पहुंचाना है तो उन व्‍यावसायिक शिक्षण संस्‍थानों के नियमन के लिए बनाए गए संस्‍थान की तरह ही पत्रकारिता शिक्षा के नियमन के लिए अलग से मीडिया परिषद बनाये जाने की जरुरत है। उन्‍होंने कहा कि इसके लिए हमने भोपाल स्थित माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विवि के सहयोग से पहल की है ताकि एक कोर समूह बनाया जा सके।

दिल्‍ली यूनियन आफ जर्नलिस्‍ट, दिल्‍ली मीडिया सेंटर फार रिसर्च एंड पब्लिकेशंस तथा केंद्रीय हिंदी निदेशालय के तत्‍वावधान में आयोजित एक कार्यक्रम में न्‍यायमूर्ति बीएनरे ने इस बात का जिक्र भी किया कि मीडिया के सभी पक्षों के लिए पूरी तरह से स्‍वायतशासी मीडिया परिषद बनाया जाना चाहिए। उन्‍होंने कहा कि वर्तमान में पत्रकारिता काफी चूनौतीपूर्ण है, इसके लिए पत्रकारों को तकनीकी जानकारी, गुणवत्‍ता पूर्ण प्रशिक्षण और भाषा पर सशक्‍त पकड होना आवश्‍यक है।

गुरुवार, 26 मार्च 2009

भोजपुरी गजल

एक
जिंदगी सहकल रहे
मन तनी बहकल रहे

तन-बदन के के कहो
सांस ले दहकल रहे

मन के वन में आग-जस
जाने का लहकल रहे

चांद के आगोश में
चांदनी टहकल रहे

रात रानी रात-भर
प्‍यार से महकल रहे

दो
छन में कुछ अउर कुछ भइल छन में
मन में कुछ अउर कुछ भइल तन में

फूल सेमर के दिगमिगाइल बा
आग लागल बा जइसे मधुबन में

अइसे चमके लिलार के टिकुली
हो मनी जइसे नाग का फन में

बात खुल के भले भइल बाकिर
कुछ-ना-कुछ बात रह गइल मन में

(उपर वाला दुनो गजल पांडेय कपिल जी के बाटे। पांडेय कपिल जी भोजपुरी के वरिष्‍ठ आ प्रतिष्ठित रचनाधर्मी हईं।)

रविवार, 22 मार्च 2009

ताकि गुजर न जाए गोधरा

डब्‍ल्‍यू एच आडिन एक शायर था,
उसने कहा था
अगर हम एक-दूसरे से प्‍यार नहीं करेंगे
तो मर जाएंगे।
मैं भी इस बात को मानने लगा था
पर अब असहमत होना चाहता हूं।

जंगल से शहर की यात्रा में
बहुत पाया आदमी ने।
चार की जगह दो पैर पर चलना सुहाया आदमी को।
पर बाकी है कहीं हैवानियत का अंश कोई
नहीं तो खींच लाता आदमीयत के शिखर से आदमी को।

अगर आपको याद हो,
साबरमती एक्‍सप्रेस में भी आदमीयत मरी थी
तब भी मरी थी आदमीयत जब...
मां की गोद से बच्‍ची को छीनकर
संगीन पर उछाल दिया गया था,
और तब भी आदमीयत ही मरी थी
जब नाम पूछ कर सर कलम कर दिया गया था
रामभरोसे और यकीन अली का,
कभी गुजरें आप गोधरा से तो देख सकते हैं यह सब।

क्‍या सचमुच देख सकेंगे आप वह सब
जो सहा था गोधरा ने ?
सत्‍तावन लोगों को जिंदा जला दिया जाना
बच्‍चों के आंखों की दहशत और औरतों की चीख
क्‍या सुन पाएंगे आप?

रामभरोसे की पत्‍नी की आंखों के सूख गए आंसू
यकीन अली के मां की पथराई आंखें
शायद न दिखे आपको
क्‍योंकि बहुत पुरानी हो चुकी यह बात
क्‍योंकि जब आप गुजर रहे होंगे गोधरा से
सो रहे होंगे, सो रही होगी आपकी आदमीयत।

यह सब कुछ दिखेगा तभी
जब जगेगा आपके अंदर का आदमी
इसलिए हो सके तो, जगने दीजिए
अंदर के आदमी को
जब भी ये आदमी जगेगा
तब कोई गोधरा गुजरेगा नहीं इस तरह।

मेरे पत्रकार मित्र सचिन श्रीवास्‍तव ने अपने ब्‍लाग नई इबारतें पर कुछ दिनों पहले एक पोस्‍ट में मुझे जानने वालों से यह गुजारिश की थी कि मुझे कविता लिखने के लिए उकसाया जाए। यह कविता उसी का परिणाम है। इसलिए सचिन को समर्पित है।

शुक्रवार, 20 मार्च 2009

महात्‍मा गांधी का पुर्नजन्‍म


गाजियाबाद पुलिस ने एक ऐसे व्‍यक्ति को गिरफ़तार किया है, जो खुद को महात्‍मा गांधी बताकर लोकतंत्र व मतदान का विरोध कर रहा था। सफेद धोती, गले में लटकी जेब घडी और हाथ में लाठी। आंखों पर गोल ऐनक वाला चश्‍मा यानि, पूरा का पूरा लूक महात्‍मा गांधी का। यह गांधी पिछले कई दिनों से शहर में है और जगह-जगह पोस्‍टर और पंपलेट की मदद से लोकतंत्र व मतदान का विरोध कर रहा है। इसका कहना है कि गंदी व भ्रष्‍ट राजनीति का शुदि़धकरण करने के लिए आवश्‍यक है कि लोगों को तब तक मतदान का बहिष्‍कार करना चाहिए, जब तक कि एक स्‍वच्‍छ व न्‍याय संगत लोकतंत्र की स्‍थापना नहीं हो जाती। स्‍वच्‍छ लोकतंत्र के आने तक देश में राष्‍ट्रपति शासन रहना चाहिए।

महात्‍मा ग्रांधी के इस आधुनिक संस्‍करण की पहचान मूल रुप से मथुरा निवासी डाक्‍टर महेश चतुर्वेदी के रुप में हुई। मनोविज्ञान में शोध कर चुके महेश चतुर्वेदी कुछ महीने पहले तक हरिद़वार स्थित बीएचईएल कंपनी में बतौर प्रशासनिक अधिकारी के पद पर कार्यरत थे। किसी वजह से उन्‍होंने यह नौकरी छोड दी। चतुर्वेदी का कहना है कि वे पूर्व में राष्‍ट्रपति पद के लिए चुनाव लड चुके हैं। डा महेश खुद को राष्‍ट्रपिता महात्‍मा गांधी का पुर्नजन्‍म बताते हैं।

बुधवार, 18 मार्च 2009

यौन आलोचना में उलझे लेखक-पत्रकार

यह कटू सत्‍य है कि समाज के सामान्‍य लोग लेखकों, पत्रकारों पर पूर्ण रुप से विश्‍वास नहीं करते। यही वजह है कि हमेशा ही इनकी निजी जिंदगी के बारे में लोग बडे ही उल्‍टे-पुल्‍टे सवाल करते हैं। वे यह जानने को इच्‍छुक होते हैं कि क्‍या निजी जीवन में भी इनका व्‍यवहार नाटकीय, इनकी भाषा प्रभावशाली और रहन-सहन इनके पात्रों जैसा ही होता है। दो लेखक या पत्रकार जब मिलते हैं तो क्‍या बाते करते हैं। क्‍या ये भी अपने परिवार व बच्‍चों से उतना ही प्‍यार करते हैं। अभिभावक या जीवनसाथी के रुप में लेखक-लेखिका व पत्रकार कितना भरोसेमंद होते हैं। मेरे एक मित्र ने बताया कि उसकी पत्‍नी से उसकी एक सहेली ने पूछा- आपके पति आपसे प्‍यार कब करते हैं। मेरी समझ में यह सवाल इनोसेंट न होकर एक खतरनाक है।

यह विडंबना नहीं तो क्‍या है कि समाज को दिशा दिखाने का दंभ भरनेवाले एक वर्ग विशेष के प्रति लोगों की ऐसी धारणा बन गई है। वे इनके मूल चरित्र को ही नहीं समझ पाते हैं। वे इस उलझन में सदैव रहते हैं कि यह आदमी जैसा दिखता है क्‍या वैसा ही है। हो भी क्‍यों नहीं, लोगों को पता है कि जब दो चित्रकार मिलते हैं तो वे अपनी कला आदि पर चर्चा करते हैं। दो संगीतकार मिलते हैं तो वे भी स्‍वरों, साजों आदि पर खूब विचार-विमर्श करते हैं पर इसके विपरीत जब एक से अधिक लेखक या पत्रकार कभी-कभार मिलते हैं तो इसके पीछे अक्‍सर या तो विशु़दध उत्‍सुकता होती है या फ‍िर दूसरे के प्रति गहरी सराहना का भाव। वरना सामान्‍यत: एक साथ बैठने पर वे परस्‍पर वैमनस्‍य का ही प्रदर्शन करते हैं। एकाध उन खास अवसरों को छोडकर जब उन्‍हें एक-दूसरे के प्रति स्‍वार्थ न दिख रहा हो। प्राय: तो ये एक-दूसरे की छीछालेदर और टांगखिंचाई में ही अपना कीमती वक्‍त जाया कर देते हैं।

यही वजह है कि आज भी जिन दिवंगत मूर्धन्‍य साहित्‍यकारों के प्रशंसक आराधना करते नहीं थकते हैं उनके बारे में उनकी ही बिरादरी के लोग ओछी जानकारियों को यदा-कदा एक-दूसरे से शेयर कर अपनी मूर्खतापूर्ण जानकारी का परिचय देने से भी नहीं चूकते। जैसे- प्रेमचंद सूद पर रुपया देते थे, जैनेंद्र स्‍वेच्‍छाचार के हिमायती थे,भारतेंदू ने अपने बाप-दादों की कमाई तवायफों के पास आने-जाने में खूब उडाई, शरतचंद्र व्‍याभिचारी थे आदि-आदि। कई किस्‍से तो आज के नामी-गिरामी साहित्‍यकारों पर भी मशहूर हैं। जैसे- फलां आलोचक के विवाहेत्‍तर संबंध हैं, फलां कवि की पत्‍नी फलां प्रकाशक की रखैल है।

मेरी समझ में पत्रकारों, लेखकों का वर्ग अपने मित्रों व अपने पूर्वज या वरिष्‍ठ साहित्‍यकारों के बारे में जब तक इस तरह की बेहूदा कमेंट या मनगढंत बातें करता रहेगा लोग भी इनके बारे में उल्‍टी-सीधी धारणा बनाते रहेंगे। क्‍योंकि निजी यौन जीवन से आगे भी बहुत सी बातें ऐसी हैं जिसपर चर्चा की जा सकती है, की जानी चाहिए। ताकि किसी पत्रकार की पत्‍नी की सहेली उससे उसके पति पर संदेह करते हुए सवाल न कर सके। ताकि शराबी चरित्र के नायक की कहानी पढते हुए कोई पाठक कहानीकार के बारे में ऐसा न सोचे कि आखिर कितनी पैग शराब पीकर यह कहानी लिखी गई होगी। किसी बेस्‍टसेलर उपन्‍यास के बारे में किसी के मन में यह सवाल पैदा न हो कि आखिर कितनी महंगी कलम से किस स्‍टैंडर्ड के कागज पर यह लिखा गया होगा।

सोमवार, 16 मार्च 2009

शिवगंगा में संगम

उफ... ऐसे नहीं... क्‍या कर रहे हो... मेरा पैर ढको... जैसी विचलित करने वाली आवाज से मैं जूझ ही रहा था कि धडाधड पप्पियों-झप्पियों की बारिश होने लगी। यह सब कुछ हो रहा था मेरे सामने वाली बर्थ पर। बात 14 मार्च की है। मैं शिवगंगा एक्‍सप्रेस से वाराणसी से गाजियाबाद आ रहा था। चूकि मुझे कनफर्म बर्थ नहीं मिल पाया था इसलिए मैं अपर बर्थ पर एक उम्रदराज महिला से इजाजत लेकर बैठ गया था, उस महिला की उम्र लगभग 70 साल की रही होगी। हालांकि मैं काफी थका हुआ था पर सो पाने की कोई गुंजायश कतई नहीं थी। पूरा डिब्‍बा यात्रियों से खचाखच भरा हुआ था। गेट से लेकर बर्थ तक। जो जहां बैठ सकता था, बैठा था। रात काफी हो रही थी, सारे यात्री लाइट आफ कर सो रहे थे इसलिए मैं कुछ पढ भी नहीं सकता था। मैं जिस बर्थ पर बैठा था वह महिला कुछ-कुछ बीमार सी लग रही थी। मैंने महसूस किया कि वह पूरे टाइम जगी ही रही। अब तक मैं सामने वाले बर्थ से थोडी-थोडी देर पर पप्पियों-झप्पियों की आवाज सुनने का लगभग आदी हो चुका था।
सुबह चार बजे मुझे उस महिला ने लगभग गुजारिश के लहजे में कहा, बेटा मुझे बाथरुम पहुंचा दो। इससे पहले वह नीचे की बर्थ पर सो रहे अपने घरवालों को कई बार पुकार चुकी थी। खैर, मैंने सहारा देकर उसे बर्थ से नीचे उतारा। उसने अपने चप्‍पल पर से उठाकर कोई वस्‍तु मुझे देते हुए कहा- देखना यह किसी का कोई सामान गिर गया लगता है। मैं अवाक रह गया। वह कंडोम का खाली रैपर था। जब मैं उसे बाथरुम से लेकर लौट रहा था, उसने मुझसे स्‍वाभाविक सवाल किया- बेटा वह क्‍या था, तुम्‍हारा था। मैंने सहज होते हुए जवाब दिया, नहीं अम्‍मा जी वह चाकलेट का खाली पैकेट था, किसी बच्‍चे ने खाकर फेंका होगा।
उसके बाद मैं असहज महसूस करता रहा। अब मुझे सुबह होने का इंतजार था।
खैर प्रतीक्षा खत्‍म हुई, सुबह हो चुकी थी। ट्रेन अलीगढ जंक्‍शन पार कर चुकी थी। मेरे सामने वाली अपर बर्थ पर सो रहे युगल को जगाने उनके कई दोस्‍त आए। मैंने पत्रकारीय गुण का इस्‍तेमाल किया। तस्‍वीर साफ हो चुकी थी। दरअसल, वे दोनों ग्रेटर नोएडा की किसी इंस्‍टीच्‍यूट के कंप्‍यूटर साइंस के स्‍टूडेंट थे व प्रेमी युगल भी। होली के अवकाश के बाद घर से लौट रहे थे। लडका बनारस का था, लडकी इलाहाबाद की। दोनों की प्रेम कहानी उनके कालेज कैंपस में काफी मशहूर है। लगभग दस छात्रों का समुह अब तक वहां जमा हो चुका था। वे सभी उन दोनों को जिस तरह से मुस्‍कराकर देख रहे थे उससे मुझे अपने सारे सवालों को जवाब मिल गया था। गाजियाबाद में ट्रेन चार नंबर प्‍लेटफार्म पर रुकी और मैं उतर गया।
इससे मेरा यह विश्‍वास तो पुख्‍ता हो ही गया कि नये युवा प्रेमियों का दिल, जिगर, गुर्दा सब फौलाद का बना है। वह जहां चाहें, जो चाहें कर सकते हैं। जब वे प्‍यार में होते हैं तो उन्‍हें किसी की भी परवाह नहीं होती। उन्‍हें जो करना है, वे बिना परवाह के कर गुजरते हैं। हम तब भी कमजोर थे और अब भी हैं। जिसे वर्षों से चाहते रहे उसका हाथ पकडने तक का साहस नहीं जुटा पाए। इजहार करने का तरीका कहां-कहां नहीं ढूंढा। पार्क में झाडियों के पीछे छिप कर कुछ करने का आइडिया अब तक नहीं आया। घंटों फूलों का लुत्‍फ उठाकर खुशी-खुशी घर लौट आते थे, जैसे कोई बहुत बडी उपलब्धि हासिल कर ली हो। पर इन प्रेमी युगल जैसा साहस कभी नहीं हुआ।

सोमवार, 9 मार्च 2009

वह कौन था



एक दिन सुबह वह
अपनी उत्‍पति के बारे में जानने की
खुनी और रुहानी जल्‍दबाजी में पाया गया,


वह पागलों की तरह खुद को
कभी हिंदू तो कभी मुसलमान कहकर
चिल्‍ला रहा था,



जाहिर है
उसके सोचने के बारे में
भला हम क्‍या सोच सकते थे
हमने उसकी ओर गौर से देखा,
पर पहचानना मुश्किल था
बावजूद इसके कि
वह आया हमीं में से था।

शनिवार, 7 मार्च 2009

नारी मुक्ति या देह मुक्ति : भाग-दो

स्त्री-शरीर के साथ शुचिता का जो तमगा लटका दिया गया है (पुरुष जिससे पूरी तरह मुक्त है), उससे स्त्री को मुक्त होना ही होगा। विधवा, तलाकशुदा, बलात्‍कार की शिकार स्त्रियां दूसरे पुरुष के लिए क्यों त्याज्य हैं? सच पूछा जाये तो यह समस्या स्त्रियों से ज्यादा पुरुषों की है, क्यों कि स्त्री-पुरुष को लेकर पाक-पवित्र की धारणाएं तो उनके मन में ही जड़ें जमाए बैठी हैं। यहां मेरा अभिप्राय उन स्त्रियों से नहीं है जो देह की स्वतंत्रता की आड़ में देह के बल पर अपनी महत्वाकांक्षाओं की सीढिय़ां चढ़ती हैं। कास्टिंग काउच को बढ़ावा देने में ऐसे स्त्रियों की भूमिका ज्यादा संदिग्ध है।मैं इस बात को सिरे से खारिज करता हूं कि - सेक्स की स्वतंत्रता ही स्त्री की असली स्वतंत्रता है। फिर तो यह सवाल भी उठना चाहिए कि सेक्स की स्वतंत्रता का मतलब क्या है? इसका स्वरूप क्या होगा और हमारे समय और समाज के संदर्भ में क्या इसकी कोई संभावना भी है? क्योंकि अभी तक या तो वेश्याएं इस स्वतंत्रता का उपभोग करती रही हैं या फिर जानवर।

सवाल जटिल है। जवाब आसानी से नहीं मिलने वाले। मगर चर्चा जारी रहनी चाहिए। हां, अंतरराष्‍ट्रीय महिला दिवस के बाद भी...

शुक्रवार, 6 मार्च 2009

नारी मुक्ति या देह मुक्ति

हिंदी के कुछ काम कुंठित स्त्री चिंतक व विचारक सेक्‍स की मुद्रा बनाकर सेक्स मुक्ति में ही स्त्री मुक्ति का महामंत्र खोजने में लगे हैं। संयोग से कुछ प्रतिभाग्रस्त लेखिकाएं अपने लेखन को इसी के आग्रह पर फार्मूलाबद्ध कर रही हैं, जिसे कुछ पत्रिकाएं समकालीन बेबाक स्त्री लेखन का प्रतिमान बना रही हैं। पिछले कुछ वर्षों से हम हिंदी की कुछेक साहित्यिक पत्रिकाओं के पृष्ठों पर जिस स्त्री विमर्श, स्त्री मुक्ति आदि का मानचित्र देख रहे हैं, दरअसल, वह तथाकथित बुद्धिजीवियों की उन मनोग्रन्थियों के विकार से बन रहा है, जो समाज की हर स्त्री को उन्मुक्त आकाश देकर लगभग पोर्न स्टार बना देने को लिए आतुर हैं।बढ़-चढ़कर लिखे गये यौन अंतरंगताओं के वृतांतों को सर्वाधिक श्रेष्ठ और सफल लेखन का दर्जा दिया जा रहा है। साहित्य के ऐसे स्वघोषित नारीवादी रचनाकार स्वयं को नारी मुक्ति का झंडाबरदार मानने लगे हैं। वे देह मुक्ति की पताका को ऐसे लहरा रहे हैं जैसे कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका की चुनरी।मेरा सवाल यह है कि क्या स्त्री की सारी लड़ाई पुरुष के समकक्ष खड़ा होने में है और वही सब करने-लिखने में है जो पुरुष करता है? फिर तो स्त्री की समस्याएं समाप्त हो जानी चाहिए। तथाकथित स्त्री विमर्शकार की भी यही मंशा है कि स्त्री उसी की भाषा में वही बोले, जो वह सुनना चाहता है। वही लिखे, जैसा वह लिखवाना चाहता है। क्या स्त्री के अस्तित्व की लड़ाई यहीं खत्म नहीं हो जाती? क्या स्त्री को मात्र देह के रूप में देखने वाले ऐसे रचनाकारों को स्त्री विमर्श करने का अधिकार दिया जाना चाहिए?अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर ब्लाग लिखने-पढऩे वालों से उपरोक्त सवाल समझदारी व ईमानदारी से जवाब मांग रहे हैं।

बुधवार, 4 मार्च 2009

पुरस्‍कार गुणवत्ता का पर्याय नहीं


कुछ लोग ऐसे होते हैं जो हमेशा ही निर्भीक बने रह सकते हैं। कोई भी लालच उन्हें डिगा नहीं सकता, और न ही कोई प्रलोभन उन्हें प्रभावित करता है। लालसाविहीन ऐसे लोग हमेशा ही समाज के लिए प्रेरक होते हैं, और अनुकरणीय भी। प्रख्यात साहित्यकार व शीर्षस्थ कवि प्रो केदारनाथ सिंह भी ऐसी ही शख्सियतों में से एक हैं। हाल में ही यूपी सरकार ने उन्हें प्रदेश के शीर्ष पुरस्‍कार भारत भारती से नवाजा। पुरस्‍कार को पूरा सम्मान देते हुए श्री सिंह ने उसे ग्रहण किया पर समय आने पर अपने मन की बात भी कहने से नहीं चूके।हाल में ही प्रकाशित एक साक्षात्‍कार में प्रो.केदारनाथ सिंह ने कहा कि वे पुरस्‍कार को गुणवत्ता का पर्याय नहीं मानते। उनका कहना है कि यह एक औपचारिक चीज है जिसके निर्धारण में वर्तमान दौर में बहुत से अनचाहे मानक भी कार्य करते हैं। मुझे इससे पहले कई प्रदेशों के साहित्य के बड़े पुरस्‍कार प्राप्त हो चुके हैं। यह सौभाग्य की बात है कि उत्तर प्रदेश ने मुझे भारत भारती पुरस्‍कार के काबिल समझा। पर पुरस्‍कार गुणवत्ता का पर्याय नहीं है। ऐसा नहीं है कि इसके बाद मेरे लेखन में कोई व्यापक परिवर्तन होगा। दरअसल, मेरे जैसे मध्यवर्गीय लेखक व कवि के लिए पुरस्‍कार की धनराशि संचित रायल्टी की तरह है जो तमाम जरूरतों को पूरा करने में मददगार होती है। उनका कहना था कि प्रदेश सरकारों की जो समिति, संस्थाएं या अकादमी हैं उन्हें स्वायत्त होना चाहिए। सरकार कि भूमिका निरपेक्ष व केवल अनुदान देने तक सीमित होना चाहिए।
पढने में बिहार, बंगाल अव्वल
केदारनाथ सिंह ने कहा कि पश्चिम बंगाल व बिहार आदि क्षेत्रों में आज भी किताबें ठीक से पढ़ी जाती हैं। वहीं उत्तर प्रदेश में पुस्तक मेला में बिहार की एक चौथाई किताबें भी नहीं बिकती हैं। बावजूद इसके पुस्तकों के प्रति रुझान घटा नहीं है बल्‍िक ई-लर्निंग आदि माध्यमों से तरीके बदल गये हैं।
पाठक प्रशिक्षण आवश्यक
कवि केदारनाथ सिंह के अनुसार कविता का पाठक हमेशा सहृदय व रसिक होना चाहिए। पाठक का एक न्यूनतम प्रशिक्षण आवश्यक है। वैसे भी कविता का पाठक सामान्य पाठक से भिन्न है। कविता एक सलेक्टेड कम्यूनिटी के लिए लिखी जाती है और इसका निश्चित पाठक वर्ग होता है। केवल तुलसीदास ही इसके अपवाद है।
इस दौर में जब एक से एक धूरंधर पुरस्‍कार व सम्मान हासिल करने के लिए हर तरह के जोड़-तोड़ करते दिख रहे हैं। ऐसे में आप कवि केदारनाथ सिंह की बातों से कितने सहमत हैं।

दुखद - यादवेंद्र शर्मा चंद्र नहीं रहे


प्रख्‍यात साहित्‍यकार यादवेंद्र शर्मा चंद्र का बुधवार को जयपुर में निधन हो गया। वह लंबे समय से बीमार थे। 77 वर्षीय चंद्र अपने पीछे पत्‍नी और तीन बेटे छोड गए हैं।
चंद्र ने अपनी रचनाओं से समाज को नई दिशा देने का काम किया। उनकी रचनाएं पाठकों के मन पर अमिट छाप छोडती हैं। आजीवन सादगी एवं इमानदारी से रहते हुए उन्‍होंने अपने रचनाधर्म से देश का मान बढाया। कई पुरस्‍कारों से सम्‍मानित चंद्र ने उपन्‍यास, लघु कथाएं, कविता संग्रह एवं लघु नाटकों की सौ से ज्‍यादा पुस्‍तकों की रचना कर हिंदी सहित्‍य में अहम भूमिका निभाई। उनका निधन हिंदी साहित्‍य के लिए अपूरणीय क्षति है। आइए उनके निधन पर संवेदना प्रकट करें।

मंगलवार, 3 मार्च 2009

फ‍िजा की फ‍ितरत

खबर है, हरियाणा के पूर्व उप मुख्‍यमंत्री चंद्रमोहन के साथ प्रेम विवाह के चलते मीडिया की सुर्खियां बटोरने वाली फ‍िजा शीघ्र ही फ‍िल्म में नजर आएंगी। उन्‍हें फ‍िल्‍म देशद्रोही-2 के सेट पर देखा गया। उन्होंने मीडिया से बातचीत भी की। फ‍िल्म देशद्रोही के अभिनेता व निर्माता कमाल खान ने कहा कि फ‍िजा उनकी इस फ‍िल्म में नजर आएंगी। इसका मतलब यह है कि अभी तक उनके बारे में जो कयास लगाए जा रहे थे वे सच साबित हो रहे हैं। उन्होंने पब्लिसिटी हासिल करने के लिए तमाम तरह के हथकंडे अपनाए और अब उसका फायदा उठा रही हैं। निश्चित रुप से यह कहा जा सकता है कि उन्होंने प्रेम करने वालों को रुसवा किया है। प्रेमियों के विश्वास को झुठलाया है। क्या आप इससे सहमत हैं। अपने विचार से अवश्‍‍य अवगत कराएं।

पाक तूने क्‍या किया ?

पाकिस्‍तान के लाहौर में टेस्‍ट क्रिकेट खेलने गई श्रीलंका टीम के खिलाडियों पर जानलेवा हमले और उन्‍हें बंधक बनाने की कोशिश पर खेल जानकार विश्‍वमोहन मिश्रा की त्‍वरित टिप्‍पणी...

पाकिस्‍तान यानी आतंकवाद का सुरक्षित गढ़.... जी हां जिसका डर था वही हुआ। भारत जब चिल्ला- चिल्लाकर विश्व समुदाय को आतंकवाद के खतरे से आगाह करा रहा था, तो इसे महज फारन डिप्लोमेसी का एक हिस्सा मानकर उतना तवज्जो नहीं दिया जा रहा था। क्यों कि यह मामला हिंदुस्तान और पाकिस्तान का था। नवंबर के मुंबई बम हमले के बाद भारत ने पाकिस्तान में क्रिकेट टीम न भेजने का फैसला किया था। उस वक्त पाक ने कहा था- भारत उसे बदनाम करने की साजिश कर रहा है। परंतु श्रीलंका ने एक कदम आगे बढ़कर पाक दौरे को हरी झंडी दे दी। उस वक्त ऐसा लगा था कि यह पाक नीति कामयाब रही। श्रीलंका ने अपने खिलाडिय़ों के मूल्य पर पाक में कुछ ही महीने के अंतराल में वनडे और टेस्ट सीरीज खेलने का प्लान कर लिया। पाक दौरे का पहला चरण तो ठीक-ठाक बीत गया परंतु दूसरे चरण में उन्हें खामियाजा भुगतना पड़ा। दूसरे टेस्ट के तीसरे दिन के खेल के लिए वे होटल से मैदान भी नहीं पहुंच पाए थे कि आतंकियों के इरादे के शिकार बन बैठे।
यह तो हो गया एक पक्ष। श्रीलंका ने जैसा किया वैसा भुगता। पर पाकिस्तान का पाखंड सामने आ गया। अब उसके क्रिकेट का वह हश्र होगा कि उसने सोचा तक नहीं होगा। अब हर तरह से विश्व समुदाय उससे संबंध विच्छेद कर लेगा। उसका खेल नेस्तनाबूद हो जाएगा। उधर, लंका क्या सोच कर पाक साख सहानुभूति जताने पाकिस्तान गया था। यह भारत को नीचा दिखाने की कोशिश तो नहीं थी? या फिर पाक के सम्मोहन का शिकार तो नहीं हो गया थी? जावेद मियांदाद ने लंकाई हुक्मरानों से बात कर दौरे को तो हरी झंडी दिखवा दी, पर उसका असली चेहरा सामने आ गया। पाकिस्तान किस आधार पर कह रहा था कि उसका देश बिल्कुल सुरक्षित है। अप्रैल 2008 में आस्ट्रेलिया का पाक दौरा रद्द करना गलत नहीं था। उसके बाद अक्तूबर में चैम्‍िपयंस ट्राफी स्थगित करने के फैसले की अहमियत का पता अब चल रहा है। होटल मैरियट को उड़ाना तो एक ट्रेलर था। यह वही होटल था जहां पाक दौरे के क्रम में भारतीय या अन्य विदेशी टीम ठहरा करती थी। 14 महीने के बाद पाक क्रिकेट को टेस्ट खेलने का मौका मिला था। अब तो ऐसा लग रह है कि आनेवाले चौदह साल में कोई क्रिकेट प्लेइंग कंट्री पाक के साथ उसकी सरजमीं पर खेलने की हिम्मत नही जुटा पाएगी।

भोजपुरी गजल

एक
मन भ्रमर फेरु गुनगुनाइल बा
प्रेम-सर में कमल फुलाइल बा

आंख के राह चल के, आंतर में
आज चुपके से के समाइल बा

दूब के ओस कह रहल केहू
रात भर नेह से नहाइल बा

रस-परस-रुप-गंध-शब्‍दन के
वन में, मन ई रहल लोभाइल बा

जिंदगी गीत हो गइल बाटे
राग में प्रान तक रंगाइल बा

दो
रउआ नापीं प्रगति ग्रोथ के रेट में
हम नापीले अपना खाली चेट में

अब ढोआत नइखे ई बहंगी महंगी के
ताकत नइखे एह कंधा एह घेंट में

हाथ पसारीं कइसे केकरो सामने
बाझल बाटे ऊ हंसुआ के बेंट में

खबर खुदकुशी के मजदूर-किसान के
लउकत नइखे रउरा इंटरनेट में

हमके चूहामार दवाई दे दीहीं
चूहा कूदत बाटे हमरा पेट में

(उपर वाला दुनो गजल पांडेय कपिल जी के बाटे। पांडेय कपिल जी भोजपुरी के वरिष्‍ठ आ प्रतिष्ठित रचनाधर्मी हईं।)

सोमवार, 2 मार्च 2009

शोक संदेश - संजय सिरोही नहीं रहे

मित्रों हमने अपने एक युवा पत्रकार साथी पचीस वर्षीय संजय सिरोही को खो दिया। रविवार रात एक बजे दैनिक जागरण, मेरठ आफ‍िस से घर लौटते वक्‍त किसी काल रुपी वाहन ने उसे हमारे बीच से छिन लिया। मोटरसाइकिल से घर लौट रहे संजय की मौत वाहन से टक्‍क्‍र लगने के बाद तुरंत घटनास्‍थल पर ही हो गई। वे मेरठ की अजंता कालोनी में रहते थे। अभी चार महीने पूर्व ही संजय की शादी हुई थी। मेरठ का मीडिया समुदाय शोकाकुल है। संजय इससे पूर्व अमर उजाला, मेरठ में कार्यरत थे।
मेहनती, होनहार व मिलनसार स्‍वभाव के संजय को खोने का गम हम सभी पत्रकार सार्थियों को है। हम उनकी आत्‍मा की शांति की कामना करते हैं और इस दुख की बेला में उनके परिजनों के साथ हैं।